पूरा आफिस सन्नाटे में सिमटा हुआ था। यहाँ तक की दरवाजों और खिडकियों पर लटके पर्दों के हिलने की
आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी।
राशनिंग का आफिस और सन्नाटा।
दोनों का मिलन कम से कम वहां सबकी समझ को भ्रमित कर रहा था।
आफिस में सब एक दूसरे की आँखों में झांकते हुए खामोश खड़े उस सवाल का अर्थ ढूंढ रहे थे।
तभी कमरे की दाई ओर बैठे सर्कल इन्स्पेक्टर के पास दहाड़ती हुई एक आवाज सुनाई पड़ी। उसके सामने खड़ा
एक फौजी आफिसर कमरे के सन्नाटे की चिंदी-चिंदी कर रहा था। विशाल बाबू के कदम न चाह कर भी कारण
जानने कीउत्सुकता में उस ओर बढ़ गए थे।
फौजी आफिसर अभी भी उसी टोन में दहाड़ रहा था,"मैं ......मैं, पिछले दस दिन से आपके आफिस के चक्कर
लगा रहा हूँ। लेकिन जनाब हैं कि इनसे काम होना तो दूर, इनके दर्शन भी दुर्लभ हैं।"
सर्कल इन्स्पेक्टर चुपचाप फौजी आफिसर को घूरे जा रहा था।
"जब भी जनाब के लिए पूछताछ की,साहब किसी इन्क्वारी के लिए गए हैं। और ......और आज इनका मूड नहीं
है।कभी आप लोगों ने सोचा है कि, अगर हमारे देश पर किसी विदेशी ने आक्रमण कर दिया ........ उस वक्त हम
भी ......."
आसपास के लोगों पर नजर डालते हुए फौजी आफिसर कह रहा था, " हाँ सोचो ! हम भी जेबों में हाथ डाले ......
कहने लगें कि .......कि हमारा भी आज मूड नहीं है। जानते हैं आप ....इसका क्या अर्थ होगा .....विनाश।"
हम सभी की आँखों में फौजी अफसर का सवाल तैर उठा था ....विनाश ....महाविनाश।
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10 comments:
फिर तो मूड की ऐसी तैसी हो जाएगी
फ़ौजी अगर कर्तव्यनिष्ठ न हों तो विनाश तय है. लेकिन ये जो सरकारी दफ्तर के कर्मचारी हैं इनसे कभी भी कर्तव्यनिष्ठा की उम्मीद नहीं की जा सकती; अन्यथा देश का यूँ विनाश...महाविनाश न होता. सोचने पर मजबूर करती और जिम्मेदारी का पाठ सिखाती कथा. धन्यवाद.
EK BAHUT ACHCHHEE LAGHU KATHA
PADHWAANE KE LIYE AAPKAA AABHAAR .
AAP JITNE KUSHAL KAVI HAIN UTNE HEE
KUSHAL KATHAKAAR BHEE .
अच्छी लघुकथा अशोक. तुम्हें मेरी शिकारी कहानी याद है जो रक्षा लेखा विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करती है. एक सार्थक लघुकथा के लिए बधाई.
चन्देल
सही कहा ....ये ही एक कटु सत्य भी है
अपने देश का क्या होगा ...ये आज कोई नहीं सोचता
काश अपनी ज़िम्मेदारी को एहसान न समझते हम
namaskaar
ye katu saty hai , vaakai me agar fouji bhaiyo ki bhi aam naagriko ki tarah maansiktaa ho jaaye to , haaare pyaare desh ka maalik bhgwaan hi hai !
एक सार्थक लघु कथा ....सरल सटीक और प्रभावोत्पादक . सरकारी दामादों के नासूर पर चोट करती हुई जहां आज भी उपचार की सख्त जरूरत है
काश हर नागरिक अपने कर्तव्य एवं दायित्व पूरी तरह समझता। ज्यादहतर नागरिक ऐसे ही जेब में हाथ डाले-डाले वोट डाल आते हैं और फिर कोसते रहते हैं।
इस लघुकथा में देश की रक्षा का दावा करने वाले ऐसे लोगों पर करारा प्रहार किया गया है जो कर्त्तव्य से विमुख होते हुये भी कर्तत्वनिष्ठ पर कीचड़ उछलने हैं और अपने भाषणों की लपेट में खुद ही आ जाते हैं | रचनाकार की अभिव्यक्ति अति सुनियोजित है और सुधि पाठक को बहुत कुछ सोचने को प्रेरित करती है |
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