Tuesday 19 February 2013

अशोक आंद्रे

द्रोपदी की बटलोई ( लघु-कथा )

 
एक बुद्धिजीवी न जाने किस धुन में बहुत तेज गती से चला जा रहा था। अचानक उसकी दृष्टि सड़क पर पड़े एक जीर्ण-शीर्ण बर्तन पर जाकर रुकी।
उसने उसे उठा कर अपनी बुद्धि पर जोर दिया-"ओह,यह तो शायद द्रोपदी की बटलोई है।"
वह खुशी से पागल हो गया और अपनी खोज पर गर्व करते हुए,नए चमत्कार का सूरज चमकाने के लिए शहर की ओर भागा। किन्तु समय की ऊबड़-खाबड़ सड़क
पर उसके अनियंत्रित क़दमों ने ऐसी ठोकर खाई कि धराशायी हुए उठ सकने की क्षमता खो बैठने वाले शरीर से बटलोई काफी दूर जाकर गिरी।
उधर विपरीत दिशा से अपने साम्राज्य का विस्तार करते हुए बढ़ रहे अन्धकार ने धीरे-धीरे सारे दृश्य को अपनी अनंत काली चादर से ढक दिया।
तब से आज तक न तो उस बटलोई का पता चला और न बुद्धिजीवी का ही।
हाँ, और बहुत से बुद्धिजीवी उसी दिशा की ओर जाने के लिए अग्रसर जरूर हैं।
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