द्रोपदी की बटलोई ( लघु-कथा )
एक बुद्धिजीवी न जाने किस धुन में बहुत तेज गती से चला जा रहा था। अचानक उसकी दृष्टि सड़क पर पड़े एक जीर्ण-शीर्ण बर्तन पर जाकर रुकी।
उसने उसे उठा कर अपनी बुद्धि पर जोर दिया-"ओह,यह तो शायद द्रोपदी की बटलोई है।"
वह खुशी से पागल हो गया और अपनी खोज पर गर्व करते हुए,नए चमत्कार का सूरज चमकाने के लिए शहर की ओर भागा। किन्तु समय की ऊबड़-खाबड़ सड़क
पर उसके अनियंत्रित क़दमों ने ऐसी ठोकर खाई कि धराशायी हुए उठ सकने की क्षमता खो बैठने वाले शरीर से बटलोई काफी दूर जाकर गिरी।
उधर विपरीत दिशा से अपने साम्राज्य का विस्तार करते हुए बढ़ रहे अन्धकार ने धीरे-धीरे सारे दृश्य को अपनी अनंत काली चादर से ढक दिया।
तब से आज तक न तो उस बटलोई का पता चला और न बुद्धिजीवी का ही।
हाँ, और बहुत से बुद्धिजीवी उसी दिशा की ओर जाने के लिए अग्रसर जरूर हैं।
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9 comments:
और कई बटलोईयों के लुढ़कने की आवाज़ भी फिज़ा में है.....जबरदस्त!!
अप्राप्य को पाने की चेष्टा
भाई, लघुकथा वालों की छुट्टी...लाजवाब.
बहुत ही सुन्दर. सच ही कितने ही बुद्धिजीवी उसकी खोज में रात दिन एक कर रहे हैं...और कितने ही साहित्यकार उसके लिए पागल होने की स्थिति तक पहुंच चुके हैं.
तुम्हारी कविता लोकायत में प्रकाशित हो चुकी है और संबोधन में समीक्षा प्रकाशित हो रही है.
बधाई,
रूपसिंह चन्देल
ज्ञान-अज्ञान के साम्राज्य में सबसे निर्धन वही है जिसने ज्ञान के विस्तार को समझे बिना अपनी बटलोई को ही सीमा समझ लिया।
ज्ञानी पिपासु ही जन्मता है पिपासु ही विदा लेता है। कितने ही आये, कितने ही आयेंगे।
सही मायनो में ये एक लघुकथा है जो पौराणिक होते हुए भी एक करारा कटाक्ष और सत्य का आईना है... मगर अफसोस, फिर भी हम उस हिरन की तरह भटक रहे हैं जो कस्तूरी अपने में समाये हुए भी उसी की तलाश में भटकता है ..ऐसे बुद्धिजीवियों की ऐसी बोद्धिकता बड़ी विस्मयकारी है। बेहद अच्छी लगी ये कथा। पढ़वाने के लिए कोटि-कोटि आभार सम्मानीय अशोक आंद्रे जी। नमन।।
AESEE SASHAKT LAGHU KATHA AAP JAESA
SHEERSH SAHITYAKAR HEE LIKH SAKTA
HAI .
अन्धकार के साम्राज्य में जाने क्या क्या गुम हो जाता है. और अगर जब खुद पर गर्व हो तो समय भी अपना रूप दिखा ही देता है. बहुत अच्छी लघु कथा. शुभकामनाएँ.
द्रौपदी की बटलोई लघुकथा आज के बुद्धिजीवी पर तरस खाकर तीखापन लिए हुए गहरा कटाक्ष करती है । श्रम व ज्ञान की कसौटी पर खरे उतरे बिना वह आकाश तक सफलता की सीढ़ी लगाना चाहता है । परिणाम स्वरूप समय की धूल से उसके पाँवों के निशान तक मिट जाते हैं और ऐसे बुद्धिजीवी वर्ग में दिनोंदिन बढ़ोत्तरी हो रही है । क्या वे बुद्धिजीवी हैं !
बट्लोई" -
आज के तथाकथित बुद्धीजीवी को उद्वेलित कर देने वाली लघुकथा. काले तिमिर सागर की अतल गहराइयों में अनवरत गोता लगाता बुद्धीजीवी, हाथ आए पत्थरों को हीरे समझ आत्ममुग्ध हो जाता है. .... जब तक सीने से चिपकाए उन पत्थरों का सत्य उद्घाटित होता है, साँसों की सीमा पूरी हो चुकी होती है ...बेचारा .
सविता इंद्र
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