Monday 2 November 2009

कहानी - अशोक आंद्रे

क्षितिज

आज सुभह से ही नयनार बाबू का मन उद्ग्विन है . पता नहीं रह-रह कर अतीत की अंधेरी तलहटियों में जाने किसको ढूंढ़ रहे हैं. कमरे का अँधेरा उनके चारों ओर घेराबंदी करता दिखाई दे रहा है. वर्तमान के सभी कपाट बंद गली की तरफ खुले हैं. ऐसा महसूस होता है मानो सारे रास्ते अंधी प्रतीध्व्निओं की तरह प्रस्थान बिंदु तरफ लौट रहे हैं.
मन हुआ एक बार फिर दोरेन को जाकर देख आएं. पता नहीं उसे क्या हो गया है. अक्सर शाम को बिना खाए सो जाता है. फिर लगा की शायद अब तक सो गया होगा. पर मन नहीं माना, आखिरकार उठना पड़ा.
धड़ाम की आवाज के साथ ही मेज पर पड़ा शीशे का गिलास गिर कर चूर-चूर हो गया. कमरे में फैले सन्नाटे को चीर, झनझनाती हुई आवाज रोशनदान के रास्ते बाहर हो गयी.
लगा, उनके अन्दर भी तो ख़ौफ खाया द्वंद्व समुद्र की तरह दहाडें मारता सारे विश्वासों को चट्खाकर व्यंग्य मिश्रित अट्टहास लगाता भाग खड़ा होता है.
हाँ,उनका पूरा जीवन भी तो समुद्र के समान है. जिसमें फैले खारे एहसास प्रतिपल चिंघाड़ते रहते हैं. वहां हर कोई अपने-अपने जहाजों में लगे ब्लेडों से उनके नर्म सीने को लहू-लुहान करता रहता है. शायद हर किसी को किनारा पाने की जल्दी रहती है.किन्तु एक बार भी जिसे किनारा मिल गया, लौटने का नाम नहीं लिया उसने. मन हुआ एक बार जोर से चीखें. लेकिन ऐसा कर नहीं पाए. इस तरह के एहसास उन्हें उत्तरोतर अवाक करते रहे हैं.
इतने कमजोर तो पहले कभी नहीं थे. सामने की दीवार पर चिपकी घड़ी की टिक-टिक
लगातार कमरे की शान्ति को भंग कर रही थी. भूत वर्तमान पर खडा पिछले बीस सालों के इतिहास को बेतरतीब उसके समक्ष भग्नावस्था में पेश कर रहा था.
उन अवशेषों में पिता का चित्र गायब था. जिनके बारे में उन्होंने सिर्फ माँ के शब्दों
में एहसास किया था.
जब भी उन्होंने माँ से पिता के बारे में पूछना चाहा, माँ अपने पल्लू के एक छोर
से डबडबाई आँखों को पोंछने लगतीं. उन आँखों के पार फैले आंसुओं में सारे सवाल निरर्थक
हो डूबने लगते. यह सब सोचते हुए उनका मन फिर उदास हो गया. तभी बाहर अशोक के पेड़
पर किसी पक्षी की फड़फड़ाहट से तंद्रा टूट जाती है. लेकिन पेड़ की स्थितीप्रज्ञता पर कोई असर नहीं होता है.
अब हवा जरुर तेज बहने लगी थी बाहर. और वे उठकर कमरे से बाहर आ गये . कमरे
के बाहर का वातावरण अच्छा लग रहा था. अन्दर की घुटन छंटने लगी थी. वे जब भी इस पेड़ के नीचे बैठते उनकी नवविवाहिता पत्नी निवेदिता अक्सर उनके करीब आ बैठती. पत्नी
निवेदिता ज्यादा पढी-लिखी न थी. शादी के वक्त हाई स्कूल का इम्तहान दिया था. उन लोगों की
बिरादरी में लड़कियों को ज्यादा पढाया नहीं जाता था. इसलिए सिलाई-बुनाई के साथ चौके - बासन में दक्ष कर लड़की के हाथ पीले कर देते थे.
गाँव की जमीन से जुडी इस अल्हड युवती का सौंदर्य कितना दप-दप करता था उन दिनों,
इसका एहसास आज भी उनको है. घंटो उसका हाथ अपने हाथ में लिए बैठे रहते थे. एक बार
तो चेहरे को निहारते हुए पूरी रात इसी पेड़ के नीचे काट दी थी. बरसों से अपने जिस चेहरे को
शीशे में देखा था वही चेहरा उसके सामने बदरंग हो उठता था. लगता किसी ने भिखारी के झोले में हीरे को भिक्षा स्वरूप दे दिया है.
एक दिन इसी पेड़ के नीचे पत्नी निवेदिता ने अपना रिजल्ट कार्ड उनके हाथ में दिया था.
रिजल्ट कार्ड देख कर अवाक रह गए थे. गवई परीस्थितियों में रह कर कैसे पढाई की होगी
इस युवती ने. कई बार स्नेह से भरकर निहारा था कार्ड को. पत्नी के बजाए कार्ड बोल रहा था.
उसकी सफलता से उनका स्वयं का माथा गर्व से तन गया था.
और इसी पेड़ के नीचे एक दिन पत्नी का हाथ थाम पूछा था, "क्या आगे पढने का इरादा
है. "- और फिर निवेदिता का चेहरा निरखने लगे थे.
" जैसी आपकी इच्छा ," इतना कह कर निवेदिता ने सिर्फ अपने पैरों से जमीन को कुरेदा भर था उस वक्त.
क्षण भर के लिए पत्नी के चेहरे को ऊपर उठाकर अपना सवाल फिर से उछाला था. इस
बार निवेदिता ने अपनी इच्छा जाहिर की. और कहा,"पढ़ना चाहती हूँ किंतु...."
इस किन्तु का अर्थ नयनार बाबू जानते थे. .... घर का काम, बच्चों की जिम्मेदारी आदि.
लेकिन, पत्नी के गौरव के लिए स्वार्थी बननेके लिए तैयार नहीं थे. फिर निवेदिता पढ़कर उनका
गौरव भी तो बढ़ाएगी. उन्हें लगा की नारी के विकास के मार्ग में रोडा बनकर वे अपयश नहीं
कमाएंगे. और वे आवेश में आकर निवेदिता को सीने से लगा, आगे पढने के लिए उत्साहित
करने लगे. हाँ, इस बीच उनके एक पुत्र हो गया था. अब निवेदिता की व्यस्तता को देख उन्होंने अपनी जी.ई.की नौकरी के साथ पुत्र को भी संभालने का जिम्मा भी ले लिया था.
इस तरह कितने साल गुजर गये पता ही नहीं चला. निवेदिता की डाक्टरी की पढाई समाप्त हो गयी थी. रिजल्ट का इन्तजार था. इन्तजार के इन्हीं दिनों में उनका दूसरा
पुत्र अनुज घर की चहारदीवारी में किलकारी भरने लगा था.
इधर निवेदिता में पहले से ज्यादा बदलाव आ चुका था. पहले जैसी घर-घुस्सू वाली
मानसिकता के बजाय एक दबंग औरत ने अपनी जगह बना ली थी. बात-बात पर इठलाकर
बोलना निवेदिता के लिए आम बात हो गयी थी तो घर की हर बात में मीन-मेख निकालना
उसकी आदत. गाँव की अल्हड युवती का चरित्र छिन-भिन्न होकर स्टील के फ्रेम में जडित शीशे
के पीछे छुप गया था.
और फिर, एक दिन संज्ञा के साथ विशेषण जुड़कर साकार हो उठा था. वह निवेदिता से
डा.निवेदिता हो गयी थी. कितने खुश हुए थे नयनार बाबू. इतने दिनों की तपस्या आज
फलीभूत हुई थी. निवेदिता ने जब नौकरी की बात चलाई तो उन्होंने उसे स्वेच्छा से इजाजत
दे दी. आखिर डाक्टरी क्या घर बैठने के लिए दिलाई थी. आम हिन्दुस्तानी के करेक्टर को
तोड़ एक नई इमेज स्थापित करनी चाही थी.
और यहीं नयनार बाबू से शायद गलती हो गयी निवेदिता को समझने में. बच्चे बड़े होने
लगे थे. उन्हें पिता के साथ माँ के कोमल हाथों की गंध वाचाल करने लगी थी. छोटा अनुज
तो मौका पाते ही निवेदिता की साडी का एक सिरा थाम अपनी मांगों की फेहरिश्त पेश
करता रहता.
लेकिन निवेदिता इन सारी स्थितियों से बेखबर अपनी ही दुनिया में तल्लीन होने लगी थी. बात-बात पर चिडचिडाहट जाहिर कर वस्तुस्थिती को नकारने की आदत बन रही थी उसकी. कितना समझाया था नयनार बाबू ने प्यार भरे शब्दों से... डाक्टर होने का अर्थ गृहस्थी
को पतझर के हाथों सौपना नहीं है.
आज बड़े के इस सवाल पर चौंकने के साथ खीझे थे और डांटते हुए कहा था,-'किसने कहा
है यह सब पूछने को.'
"लोग माँ के बारे में इस तरह की बात करते हैं पापा." इतना कह, डर के मारे जमीन की ओर देखने लगा था दोरेन.
एक ही शब्द पतुरिया उनके पूरे शरीर में गरम शीशे की तरह खौल रहा था. घर की नई स्थिती, नये सिरे से सोचने को मजबूर कर रही थी. क्या इसी शब्द को सुनने के लिए निवेदिता को पढाया था ? इस सवाल को लगातार अपने आप से पूछ रहे थे नयनार बाबू.
सवाल का दूसरा सिरा हर बार ऐंठने लगता और पूरा शरीर तब लिजलिजे एहसास को महसूसता गंधाने लगा था. आखिर बड़ा क्यों इस शब्द का अर्थ पूछता है ?
घर लौटने पर निवेदिता को कितना समझाया था उस दिन. बड़ी खूबी से सवाल को हंसकर टालने की कोशिश करते हुए निवेदिता दूसरी तरफ देखने लगी थी. उसकी इस बेरूखी को सह पाना असहनीय हो रहा था नयनार बाबू के लिए. एक बार फिर समझाते
हुए कहा था,"निवेदिता ! क्या तुम आसपास उठते सवालों को महसूस नहीं करती हो ? मेरा
मतलब है कि....आज फिर दोरेन ने उसी शब्द का अर्थ पूछा था....क्या जवाब दूं उसे ?....
बोलो..."
निवेदिता कुछ देर तक मेज पर पड़ी अपनी किताबों को उलटती-पलटती रही. मानो
जवाब से कतराना चाहती हो.
"मैंने कुछ कहा है निवेदिता", दयनीय हो चले थे नयनार बाबू.
"तुम सारे के सारे पुरुष एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो".
कोई फर्क नजर नहीं आता है आम आदमी और तुममें ..... खुद तो पत्नी के साथ-साथ
दो-तीन प्रेमिकाओं की आकांक्षाएं लिए ताका-झांकी करते रहोगे .... तब कोई भी अंगुली नहीं
उठाएगा, अगर ....अगर कोई नारी किसी पुरुष से दोस्ती का हाथ भी बढ़ा दे तो... तो तुम
सब ईर्ष्या की आग में दहकने लगते हो. आखिर क्या किया है मैंने ?.... जो तुम आसमान
को सर पर उठाए चीख रहे हो." इतना कहते हुए क्रोध से हांफने लगी थी निवेदिता.
नयनार बाबू को तो जैसे सांप सूंघ गया था. पूरा शरीर गुस्से के मारे काँपने लग गया
और अंत में गुस्से का ज्वालामुखी फूट ही पड़ा नयनार बाबू के अन्दर से.एक झन्नाटेदार
थप्पड़ की रेखाएं छाप दी थीं निवेदिता के मुख पर. और फिर ....काफी दिनों तक पछताए थे ...
कोसा था अपने आप को कि कितना गलत निर्णय लिया था इसी पेड़ के नीचे . पेड़ .... जो
उनके साझे प्यार का साक्षी था, नफरत का गवाह बन गया.
अनिर्दिष्ट लहर सी, लम्बी भटकन के लिए निकल पड़ी थी डा. निवेदिता - हाँ डा. निवेदिता ही. छोड़ गयी थी एक पत्र पढने के लिए....
पता नहीं किस शब्द से संबोधित करूं ! मेरी डिक्शनरी में कोई शब्द सार्थक होकर उभर
नहीं रहा है. इसके पीछे आपकी संकीर्ण भावना स्वार्थों से परे पीछा करती रही है.
शायद उसी का प्रतिफल ही तो आपका झन्नाटेदार चांटा था. जो उस दिन मेरे पूरे व्यक्तित्व को खंडित करता चला गया. उस खंडित स्वरूप को लेकर जीना मेरे लिए असंभव
हो उठा है. आपके अन्दर प्रतिपल जीवित होते अविश्वास ही इस नियति के पीछे है. इसीलिये
खुद को आपसे अलग करना जरूरी हो गया है.
यह पत्र छोड़े जा रही हूँ आपके लिए. प्रिय शब्द किसी ख़ास के लिए जोड़ा जाता है.
उस शब्द को छल नहीं सकती हूँ. प्रिय से ज्यादा राक्षस कहना उचित लग रहा है. जो सिर्फ
अपने लिए, अपने द्बारा बनाए गए नियमों में दूसरों को बाँधना जानता है. कितना गलत दृष्टीकोण है मेरे प्रती सोचने का. कभी उफनती नदी को भी बांधा जा सकता है. नदी को बाँधने का मतलब है उसे पोखर की संज्ञा देना, जिसमें सड़ांध के सिवा कुछ भी नहीं मिलता
है.
इसलिए जा रही हूँ अपनी मंजिल की तलाश में. किन्तु मेरी मंजिल वह नहीं है जिसे
तुमने माना था.
मैं अपनी आजादी का एहसास स्वछंदता में महसूस करती हूँ. जहां बंद कमरे की सीलन
का कोई अर्थ नहीं होता.
और...दो बच्चे.... उसी बंद कमरे की सीलन हैं, जिसकी बदबू मात्र से जिन के अस्तित्व
को खंडित होता महसूस किया है.
और नीचे दस्तखत भी नहीं थे....
* * * * *
इस घटना को बीते करीब दस साल हो गए हैं. जिन्दगी बड़ी सायास हो बीत रही थी.
उनके अतीत को कुरेदने की कोशिश नहीं की थी कभी बच्चों ने. हाँ, वे जरुर उदास हो जाया
करते थे. पता नहीं क्यों अतीत की गहराइयों से निकलने के बावजूद आदमी , उन्हीं गहराइयों की तरफ लौटने की कोशिश करता है जबकि उस तरफ के सारे रास्ते बंद हो
चुके होते हैं.
कल दोरेन काफी जिद कर रहा था. उसके कालेज की छुट्टियां हो गई थीं दो महीने के लिए. अक्सर बाहर घूमने के लिए जिद करता था, गर्मियोंकी छुट्टी बिताने के लिए. कई बार
सोचा उसे अकेले भेजने को, पर मन नहीं माना. बाप की ममता आड़े आ जाती थी. यही सोच
बच्चों के साथ शिमला घूमने की तैयारी कर ली इस बार. आखिर इस भुतहे शहर से कुछ
दिन छुटकारा तो मिल जाएगा.
आज दोनों बच्चे काफी खुश नजर आ रहे थे. शिमला आए एक महीना हो चला था. बर्फ से
ढके पहाड़ काफी खूबसूरत नजर आ रहे थे. सूनी तथा शुष्क पहाडियों में काफी हलचल थी.
इधर-उधर छितराए से सैलानी बांहों में बाहें डाल मस्ती में घूम रहे थे.
काफी समय व्यतीत हो गया था और बच्चों के साथ घुमते-घामते, हांफने लगे थे अब
नयनार बाबू. चेहरे पर थकान की सलवटें उभर आईं थी. अनचाहे ही बुढापे का एहसास घर करने लगा था. चेहरे पर तिर आई सर्द लहर लो पोंछ दोरेन की तरफ देखा. जो दूर खडा पहाडियों
को अपलक निहार रहा था. छोटा अनुज काफी, थक गया था और उनकी बाहें थामे बार-बार भूख
का एहसास करा रहा था.
कंधे पर लटके किट को उतार, वहीं जमीन पर बैठ गए. और, किट को खोल उसमें से थर्मस निकालने लगे. तभी दोरेन को बुलाने के लिए अनुज से कहा.
"भैया ..." अनुज की आवाज पहाडियों के बीच से निकलती पूरे वातावरण में फैल गयी .
शायद दोरेन को भी भूख लग गई थी तभी तो किट में से खाने का सामान निकालने
लगा. उसकी बेसब्री देख वे स्वयं उसकी सहायता करने लगे. अब वे तीनों वहीं बैठ कर खाने लगे.
इधर सूरज भी पहाडों के बीच फसां अंतिम साँसें ले रहा था. ऊंचे-ऊंचे पहाडों की परछाइयां
उनके ऊपर से होकर पूरे शिमला को बांध रही थीं. और सांय- सायं करती हवा काफी ठंडी हो चली थी. सैलानियों का आना-जाना कम हो गया था. कुछ जोड़े अभी भी घूम रहे थे.
बच्चों को जल्दी खाने की हिदायत देकर नयनार बाबू दूर किसी जोड़े को घूरने लगे . अचानक उनके पूरे शरीर में सुरसुरी होने लगी. पता नहीं ठण्ड से या फिर घबराहट के कारण.
उन्होंने उस जोड़े को दो-तीन बार देखा. "हाँ, यह निवेदिता ही थी जो अपनी मस्ती में किसी
पुरुष की बगल में हाथ डाले घूम रही थी." अपने आप को आश्वस्त करते हुए नयनार बाबू
ने सोचा. आसमान में छितराए बादलों के नीचे बंद कमरे की सीलन से दूर उमड़ती नदी की
तरह चंचल हो रही थी निवेदिता, उनके अन्दर का पुरुष प्रतिशोध से सुलगने लगा.
"शित",शायद दोरेन ने भी उसे देख लिया. तभी तो उसके अन्दर के पुरुष का ईगो दहाड़ने लगा.
"दोरेन", डांटते हुए नयनार बाबू चिल्लाए, " जबान संभाल के बोलो." उन्हें महसूस हुआ
की गिले-शिकवे और हिकारत का हर एक हक़ उनका अपना कापीराईट है जो दोरेन तक उनकी आज्ञा के बिना नहीं पहुंचता. अन्दर ही अन्दर एक ताप से वे पिघलने लगे. ठंडी हवा
रूमाल की तह उभरे हुए पसीने को अपने में जज्ब करती जा रही थी.
चाह कर भी दोरेन को शांत नहीं कर पाए. शायद उनका स्वयं का प्रतिशोध दोरेन
के परशुराम को परिलक्षित कर तन गया था.
आखिर किन संबन्धों के तहत उनका स्वयं का आक्रोश गर्म लावे की तरह फूट रहा था. जिसकी हर डोर कटकर जमीन पर बिखरी उलझ गई थी. चाहे जिधर से पकडो वह अंतिम
सिरे का ही आभास देती है. और फिर .... काफी देर तक निवेदिता को जाते देखते रहे
नयनार बाबू.
दुसरे दिन होटल के कमरा न. १३ के बाहर गैलरी में, अखबार पढ़ते हुए नयनार बाबू
विगलित हो उठते हैं. हर बार उनकी आँखे अखबार की उन लाइनों पर टिक जाती हैं जहां निवेदिता की पथराई आँखें ठंडी देह के बीच उन्हें घूर रहीं थीं.
एक ख़्याल बिजली की तरह कौंधा ... यह खबर दोरेन को कैसी लगेगी क्या वह
रोयेगा या परितोष महसूस करेगा.
उन्हें महसूस हुआ कि यह सवाल ही पहले उनके लिए है उसके बाद कहीं दोरेन
तक पहुंचता है.
अखबार वहीं छोड़ वे उठ खडे हुए, दोनों हथेलियाँ आँखों के सामने कर लीं. मानो
निवेदिता के अंत का रहस्य स्वयं की आँखों से छुपाना चाहते हों. उन्हें महसूस हुआ कि
निवेदिता मरकर भी प्रतिपल उनके साथ जीने के लिए सूक्ष्म हो गई है... जहां न तो शंका के लिए स्थान है और न ही सीलन भरे कमरे की परिकल्पना....
निवेदिता शायद एक क्षितिज थी जो दिखाई तो देता है किन्तु जहां तक
पहुंचा
नहीं जा सकता है.