Wednesday 11 August 2010

अशोक आंद्रे

घर की तलाश

मुद्दतों के बाद लौटा था वह
अपने घर की ओर,
उस समय के इतिहासिक हो गए घर के
चिन्हों के खंडहरात
शुन्य की ओर ताकते दिखे प्रतीक्षारत .
उस काल की तमाम स्मृतियाँ
घुमडती हुई दिखाई दीं ,
हर ईंट पर झूलता हुआ घर
भायं-भायं करता दीखा,
दीखा पेड़ , जिसके नीचे माँ इन्तजार करती थी
बैठ कर
शाम ढले पूरे परिवार का .
उसी घर के दायें कोने में पड़ी सांप की केंचुली
चमगादड़ों द्वारा छोडी गयी दुर्गन्ध
स्वागत का दस्तरखान लगाए मिलीं ,
जबकि दुसरे कोने में
मकड़ी के जालों में उलझी हुई
स्मृतियों के साथ
निष्प्राण आकृतियाँ झूल रही थीं
घर के आलों में भी काफी हवा भर गयी थी
जिसे मेरी सांसें उनसे पहचान बनाने की
कोशिश कर रही थीं,
हाँ, घर की टूटी दीवार पर लटकी छड़ी
बहुत कुछ आश्वस्त कर रही थी
टूटे दरवाजों के पीछे
जहां कुलांचें भरने के प्रयास में जिन्दगी
उल्टी- पुलटी हो रही थी,
उधर आकाश चट कर रहा था-
उन सारी स्थितियों को
जिन्हें इस घर की चहारदीवारी में सहेज कर
रख गया था
इड़ा तो मेरे साथ गयी थी
लेकिन उस श्रद्धा का कहीं कोई निशान दिखाई
नहीं दे रहा था
जिसे छोड़ गया था घर के दरवाज़े को बंद
करते हुए,
अब हताश, घर के मध्य
ठूंठ पर बैठा हुआ वह
निर्माण के सारे तथ्यों को ढूंढ रहा था,
जिसका सिरा बाती बना इड़ा के हाथ पर
जलते दीये में ही दिख रहा था,
बीता हुआ समय कल का अंतर बन कर
खेत में किसी मचान सा दिख रहा था
जिस पर बैठ कर
सुबह का इन्तजार कर रहा था वह
ताकि घर को फिर अच्छी तरह टटोलकर
सहेजा जा सके .



सपने

सपने हैं कि पीछा नहीं छोड़ते
हर रोज अजीबोगरीब सपनों का
सहारा लेकर
अनगिनत सीढ़ियों को घुटनों के बल
विजीत करने की कोशिश करता है वह,
यह व्यक्ति की फितरत हो सकती है
जो,उसे आकाश में भी सीढ़ियों का
दर्शन करा देती है.
सीढ़ियों पर खड़ा व्यक्ति
अपने से नीचे खड़े व्यक्ति को
उसके शास्त्र से जूझने को कहता है.
एक सीढ़ी, दो सीढ़ी पहाड़ तो नहीं
बन पाती है.
हाँ उसके व्याख्यायित आख्यानों का
विस्तार जरूर होती है.
उसी विस्तार को छूने के लिए
वह भी सपनों को विस्तार देता है
और घुटनों में ताकत देता हुआ
अपने अन्दर ही
छू लेता है उन सपनों को.

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