Friday 31 August 2018

अशोक आंद्रे

शब्द

खोज करते शब्द
फिसल जाते हैं अकसर  चादर  ओढ़
तैरने की नाटकीय कोशिश करते
समय की लहरों पर
लहराते परों की लय पर
संघर्षों का इतिहास बाँधने लगते हैं सब
फिर कैसे डूबने लगते हैं शब्द ?
साहिल की दहलीज पर
उड़ेलते हुये भावों को
पास आती लहरों को
छूने की खातिर-
जब खोजने लगता है अंतर्मन
तह लगी वीरानियों में
क्षत-विक्षत शवों की
पहचान करते हुये,
मौन के आवर्त तभी
खड़खड़ाने लगते हैं जहाँ
साँसों के कोलाहल को
धकेलते हुये पाशर्व में
खोजता है तभी नये धरातल
चादर खींच शब्दों की
करता है जागृत
शायद शब्दों को अनंत स्वरूप देने के लिये
ताकि भूल होने से पहले
वर्तमान को भविष्य की ओर जाते हुये
नई दिशा मिल सके
शब्द को.
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