Wednesday 20 March 2013

अशोक आंद्रे

विनाश (लघु कथा )
पूरा आफिस सन्नाटे में सिमटा हुआ था। यहाँ तक की दरवाजों और खिडकियों पर लटके पर्दों के हिलने की

आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी।
राशनिंग का आफिस और सन्नाटा।
दोनों का मिलन कम से कम वहां सबकी समझ को भ्रमित कर रहा था।
आफिस में सब एक दूसरे की आँखों में झांकते हुए खामोश खड़े उस सवाल का अर्थ ढूंढ रहे थे।
तभी कमरे की दाई ओर बैठे सर्कल इन्स्पेक्टर के पास दहाड़ती हुई एक आवाज सुनाई पड़ी। उसके सामने खड़ा

एक फौजी आफिसर कमरे के सन्नाटे की चिंदी-चिंदी कर रहा था। विशाल बाबू के कदम न चाह कर भी कारण

जानने कीउत्सुकता में उस ओर बढ़ गए थे।
फौजी आफिसर अभी भी उसी टोन में दहाड़ रहा था,"मैं ......मैं, पिछले दस दिन से आपके आफिस के चक्कर

लगा रहा हूँ। लेकिन जनाब हैं कि इनसे काम होना तो दूर, इनके दर्शन भी दुर्लभ हैं।"
सर्कल इन्स्पेक्टर चुपचाप फौजी आफिसर को घूरे जा रहा था।
"जब भी जनाब के लिए पूछताछ की,साहब किसी इन्क्वारी के लिए गए हैं। और ......और आज इनका मूड नहीं

है।कभी आप लोगों ने सोचा है कि, अगर हमारे देश पर किसी विदेशी ने आक्रमण कर दिया ........ उस वक्त हम

भी ......."
आसपास के लोगों पर नजर डालते हुए फौजी आफिसर कह रहा था, " हाँ सोचो ! हम भी जेबों में हाथ डाले ......

कहने लगें कि .......कि हमारा भी आज मूड नहीं है। जानते हैं आप ....इसका क्या अर्थ होगा .....विनाश।"
हम सभी की आँखों में फौजी अफसर का सवाल तैर उठा था ....विनाश ....महाविनाश।
*********