Monday 7 January 2013

अशोक आंद्रे

टी वी से पोषित होते हमारे धार्मिक तथ्य (लघु-कथा)
भीड़ - भाड़ से दूर विदुर - कुटी अपने आप में रम्य स्थान होने के बावजूद अपने दुर्दिन को जीती हुई दिखाई को जीती हुई दिखाई दे रही थी।
बहुत चर्चा सुनी तथा पड़ी थी मैंने। महाभारत का एक बहुचर्चित पात्र उपेक्षा के बोध से ग्रसित, अपने अंतिम समय तक वहीं कुटिया बना
आत्मचिंतन में लीन हो गया था। मानो सारा संसार मिथ्या के भ्रम-जाल में फंसा दीख रहा था उसे। सच्चाई जिसकी जिव्हा पर हर समय
विराजती थी कभी, आज जड़ हो उसी धरती पर मौन हो गयी थी।
ऐसे महान व्यक्ति की भक्ती - स्थली को देखने के लिए , एक लम्बे सफर के उपरान्त पहुंचा था पत्नी के साथ। कई सवाल उछाले थे उस
तक। पता नहीं क्यों सारे सवाल निरुतर हो लौट आए थे हम तक।
मन खीझ उठा था। अशांत विक्षोभ सा। पूछने पर पता चला कि वह गत दो वर्षों से वहां कार्यरत है।
उधर पुजारी शांत भाव से मंदिर की जानकारी के साथ-साथ विदुर के बारे में बता रहा था। ठीक पीछे साठ की गिनती गिनता हुआ एक
बूढ़ा व्यक्ति अपनी अनभिज्ञता को शीर्ष पर पहुंचा अस्पष्ट शब्दों में फुसफुसा रहा था .......
"बाबू जी, आप काहे को परेशान हो रहे हो, कल टी . वी . पर महाभारत आएगा ही। आपको विदुर जी के बारे में बाकि की सारी जानकारियाँ
मिल ही जाएँगी।"
मैं, पत्नी के साथ इस जानकारी पर अवाक हुए बिना नहीं रह सका। और उसके द्वारा दी गयी जानकारी पर मन ही मन खिन्न होता हुआ
मंदिर की सीढ़ियाँ उतरने लगा था।
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4 comments:

PRAN SHARMA said...

YTHAARTH KO UKERTEE MARMIK LAGHU
KATHA KE LIYE AAPKO BADHAAEE AUR
SHUBH KAMNA .

तिलक राज कपूर said...

बस एक व्‍यक्ति और मिलना था जो विदुर को विकीपीडिया पर खोजने को कहता इंटरनैट के इस युग में। जानकारी तो टी व्‍ही इ्रटरनैट के माध्‍यम से मिल स‍कती है उर्जा नहीं। उर्जा स्‍थान विशेष में होती है।

रूपसिंह चन्देल said...

बड़े भाई, यह तो कविता है. कथातत्व कम काव्य तत्व अधिक हैं.

फिर भी बधाई,

चन्देल

Anonymous said...



आपकी लघुकथा में एक तीखा व्यंग छिपा है ।ऐसे धर्म प्रधान देश में जहाँ धर्म के नाम पर लोग मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं धार्मिक तथ्यों से इतने अनजान हैं या उदासीन कि टी वी में देखी -सुनी बातों पर ही विशवास कर लेते हैं ।न उसका विरोध करते हैं न विचार विमर्श ।सच्चाई की खोज में जाना तो बहुत दूर की बात है ।नई पीढ़ी विरासत में क्या पायेगी ?यह सोचने के लिए लघुकथा मजबूर करती है।
sudha bhargava