Wednesday 19 January 2011

अशोक आंद्रे

और वह

ठीक दस साल के अंतराल के बाद अपने शहर लौट रहा था वह. यह शहर उसका अपना था . जहां उसके जीवन के बीस बसंत हँसते- खेलते एक दिन अचानक ही विदा हो गए थे . बाबू को उसके खेलों से काफी चिढ होती थी . अक्सर खेल के मैदान से लौटने के उपरांत उसकी पिटाई भी हो जाती थी. बाबू चाहते थे कि सारा-सारा दिन खेलने की बजाए वह कुछ पढाई में ध्यान लगाए . लेकिन उसके मन को खेलने के सिवा और कुछ सुहाता ही न था . और खेल-खेल में ही तो वह कब जवानी की देहलीज पार करता हुआ निशा से जा टकराया था . पता ही न चला . निशा उसके पडोस में रहती थी . याद आते ही मन काफी उदास हो उठा था . हवा तेज थी . सड़क के किनारे लगे हुए पेड़ों के पत्ते भी हवा के झोंको के साथ सरसराहट की आवाज करते हुए, उसके कदमों को तेज चलने के लिए उकसाने लगे .
इन्हीं पेड़ों पर वह कितनी बार चढ़ा - उतरा है निशा के कहने पर । कितना अच्छा
लगता था पेड़ों पर फैले घने पत्तों की सरसराहट के बीच से अनायास ही निशा को निहारते रहना . वह भी उसे घूरते देख जोरों से खिलखिला उठती थी. तब वह सिर्फ झेंपकर दूसरी ओर ताकने लग जाता था.
कितना अजीब लगता है आज सोचने पर, गाँव का निपट बेवकूफ - सा दिखने
वाला लड़का , पुलिस इंस्पेक्टर के पद को सुशोभित कर रहा है। बापू तो खुशी से फूले नहीं समाए थे। गाँव भर मे बूंदी के लड्डू बांटे थे। गर्व से अपने सीने को दुगना फैला कर मूंछो का ताव देते हुए, हर मिलने वाले के सामने प्रशंसा में शब्दों का भण्डार खोल देते. लेकिन माँ........
वह अक्सर डरी - डरी सी रहने लगी थी. पुलिस की भी कोई नौकरी होती है ?
हर वक्त एक बदनाम चेहरा नकाब की तरह ओढ़े फिरो . कोई खुल के बात भी नहीं करता है. जिसे देखो , डरा हुआ - सा कन्नी काटने को आतुर दिखता है. लेकिन माँ को कैसे समझाता कि आखिर पेट भी तो कोई चीज होती है. जिसके लिए कोई न कोई नौकरी तो करनी ही पड़ती है.
लगा, हवा फिर तेज हो गयी है. अन्धेरा भी कुछ ज्यादा ही घिर आया है. सर्दी की
रातें लम्बी और गहरी होती हैं ना, इसीलिये पेड़ों के पीछे से कई भूतिया चेहरे उभरने लगते हैं. उन चेहरों के पीछे एक चेहरा जाना पहचाना - सा लगता है.
पिछले साल कि तो बात है. जब उसे हेडक्वार्टर पर उसे बुलाया गया था . मौसम
भी इसी तरह करवटें बदल रहा था उन दिनों . मन किसी काम में न लग कर कमरे में बंद हो जाने को हो रहा था.
ठीक उन्हीं क्षणों में उसके अन्दर के पिघलते एहसासों को किसी ने दरवाजों की
सांकल बजाकर , ध्यान भंग किया था . अन्दर ही अन्दर कुढ़ते हुए दरवाजा खोला था उसने. बाहर कोतवाली से आया हवलदार शमशेर सिंह खडा था . उसे देखते ही झट , सैल्यूट ठोककर कोतवाली में हाजिर होने का परवाना थमा दिया था, उसके हाथ में.
तब वह वर्दी पहनकर , उसी के साथ कोतवाली के लिए रवाना हो गया था . रात के ग्यारह बज रहे थे. कोतवाली सन्नाटे की रजाई ओढ़े शांत दीख रही थी. मन में आशंका कुलबुलाने लगी थी. कहीं .....
कोतवाली की दाईं ओर मोटर गाडी खडी करके, अपने कमरे की तरफ मुड़ गया था . सामने उसका अर्दली कमरे के बाहर बैठा ऊँध रहा था. उसकी पदचाप को सुन वह हडबडाकर उठ खडा हुआ.
एक गिलास पानी पीकर , बड़े साहब के कमरे की तरफ चल दिया था वह. जहां बड़े साहब अपनी मेज पर झुके फाईलों के अन्दर बड़ी तल्लीनता से कुछ खोजते हुए दिखे.

धीरे से पर्दा हटा , उसने पहुंचने का संकेत दिया था. बड़े साहब ने उसे देखते ही
बैठने के लिए कहा तथा कुछ पेपर्स सामने रखते हुए कहने लगे- देखो ! तुम हमारे पुलिस विभाग में सबसे ज्यादा समझदार तथा योग्य व्यक्ति हो इसीलिये मैं तुम्हें यह काम सौंप रहा हूँ । आजकल हमारे शहर में तस्करों का बहुत बड़ा गिरोह सक्रिय है. उस गिरोह में एक विशेषता है कि वे अपने सारे कार्य किसी न किसी युवती के माध्यम से कराते हैं . ऐसी ही एक युवती मालविका है जो शहर में इस गिरोह के लिए कार्य कर रही है. लेकिन इस युवती पर हाथ डालना इतना आसान नहीं है. जरा होशियारी से काम करना होगा. अगर तुम इस युवती को किसी तरह से काबू कर सको तो समझ लो बहुत बड़ा किला फतह कर लोगे . फिर उसका हुलिया बताते हुए मुस्कराकर मेरी ओर देखते हुए कहने लगे- इसमें पदोन्नति के भी चांसिस हैं.
पिछले हफ्ते ही की तो बात है जब हैडक्वाटर की सूचना पर तस्करों के एक
गिरोह का पीछा कर रहा था । हवलदार शमशेर सिंह भी उसके साथ था। जो उस युवती के बारे में सही-सही जानकारी रखता था। लेकिन लम्बी दौड़ धूपके बावजूद वह युवती उसकी आँखों में धूल झोंककर गायब हो गयी थी।वह सिर्फ हाथ मलता रह गया था उस दिन।
साहब अभी भी उससे कुछ कह रहे थे. और वह उनकी हिदायतों पर गौर करता
हुआ अन्दर ही अन्दर प्लान बना रहा था. और विशवास की एक परत उसकी आँखों के सामने फैल गयी थी.
उसने चुपचाप उन पेपर्स को फाइल के साथ उठाया और अपने कमरे की तरफ
चला आया और फिर वह सीधे अपने कमरे की तरफ चला आया जहां बैठकर फिर नये सिरे
से उन फाईलों को उलटने-पलटने लग गया था. अचानक एक फाइल के पेज नं उन्नीस पर उसकी निगाह पड़ गयी. जहां कुछ चौंकाने वाली बात अविश्वास के गलीचे पर उठ खडी हुई थी.

उसे याद आया एक दिन वह बाजार में कुछ खरीदारी कर रहा था ठीक उसी वक्त
निशा से मुलाक़ात हो गयी थी. निशा शायद जल्दी में थी. औपचारिक बातचीत के दौरान ही निशा ने उसे घर आने का निमंत्रण दे डाला था. जिसे सहर्ष ही स्वीकार कर विदा ले ली थी निशा से उसने.
यह वही पेज था जिस पर, मालविका नाम की युवती के बारे में बड़े विस्तार से
वर्णन किया गया था. कद ५"-२"उम्र तीस साल. और ...... शहर का नाम पढ़ते ही चौंक गया था.

ध्यान आया निशा भी तो उसी शहर की है. उसे बहुत बाद में पता चला था कि उसकी शादी किसी आर्मी आफिसर से हुए थी. लेकिन नामों में कोई तारतम्य न होने के कारण वह फिर उन्हीं फाइलों में खो गया था.
आज उसकी जिन्दगी में सबसे बड़ा इम्तहान हेने जा रहा था. लगातार कितनी मेहनत
करने के उपरान्त उस केस से सम्बंधित , मुख्या सूत्र उसके हाथ लग गया था. अब सिर्फ उस युवती को किसी तरह से पकड़ कर अपनी खोज को जारी रखते हुए, पूरे गिरोह को जेल के सींखचों के पीछे करना था. उन दिनों युद्ध स्तर पर कार्य किया था उसने. सारी कार्यवाही को गुप्त रखा गया था ताकि अपराधी को हवा भी न लग सके.
सवेरे उठते ही उसने हेडक्वार्टर को फोन करके दो नारी पुलिस कांस्टेबल के साथ पांच
अन्य सहयोगी मंगवाए थे . वे सभी सादे कपड़ों में आएं इस बात की ताकीद कर दी गयी थी .
शाम के छ: बज रहे थे. सभी सहयोगी निश्चित समय तक पहुंच चुके थे. सभी को ख़ास-ख़ास
निर्देश देने के बाद उसने भी सादे कपडे पहन लिए थे.
सर्दियों में शाम साढ़े छ: बजे के आसपास ही अँधेरे वातावरण में गहराने लगे थी. सड़कों
पर आम आदमी की चहल-पहल भी सिमट कर अपने घरों की चार दीवारी में कैद हो जाती है. वैसे भी पाश कालोनी में अक्सर सन्नाटे का सैलाब चहल कदमी करता दिखलाई देता है. इसीलिये उसने इस वक्त को चुना था ताकि सारी कार्यवाही बिना किसी झंझट के निबट जाए .
तभी सामने से एक आध कार हार्न बजाती हुई उसके निकट से निकल गई. पत्तों की सरसराहट भी उस वक्त चौकन्ना बने रहने के लिए पर्याप्त थी उसके लिए. हाँ ! दो चार कुत्ते जरुर भौंक कर उस
कालोनी के चारों ओर फैले वातावरण में जिन्दगी का एहसास करा जाते. तभी एक व्यक्ती साईकिल पर तेज-तेज पैडल मारता उसके सामने से निकल कर पाशर्व में बनी एक कोठी में जाकर लुप्त हो गया.
लेकिन वह हर तरह से आश्वस्त हो जाना चाहता था. इसीलिए एक निगाह अपने साथियों
पर डाल, सीधे कोठी के चारों तरफ फैले वातावरण को सूंघने की कोशिश की. कहीं कोई ख़तरा न पाकर, धीरे-धीरे कोठी के सामने वाले दरवाजे के करीब पहुंच गया. कंटीली फेंसिंग से घिरी, फूलों से लदी यह कोठी कितनी सुन्दर लग रही थी.
अब फिर एक अजीब सी आशंका उसके दिल और दिमाग में कुनमुनाने लग गयी थी.
क्या संपन्न घरों की युवतियां इस तरह के कार्य कर सकती हैं. नहीं....नहीं, कहीं उसके दिमाग को गलतफहमी तो नहीं हो गयी है. आखिर कौन सी परिस्थितियाँ उन्हें ऐसे कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं.
ध्यान आया. उसने कहीं पढ़ा था कि संपन्न घरों की लड़कियां प्रेम में किन्हीं गलत व्यक्तियों
के चक्कर में फँस कर तमाम उम्र उनके इशारों पर कठपुतलियां बनी नाचती रहती हैं. कहीं इसके साथ भी वैसा ही चक्कर तो नहीं..... "ओह माई गाड...... " सोचते -सोचते उसका सिर बुरी तरह भन्नाने लगा था. तभी उसकी नौकरी ने उसकी भावनाओं की केंचुल काट कर एक तरफ फ़ेंक दी. लगा... कोई उसके पीछे खड़ा पूछ रहा है सर , आपको किससे मिलना है ? " मिसेज मालविका इसी कोठी में रहती हैं," - उसे नीचे से ऊपर तक घूरते हुए पूछा.
" हाँ ", लेकिन आप कौन हैं ? बड़े ही अटपटे ढंग से उस व्यक्ती ने पूछा था।
"देखिये , मैं उनके घर से आया हूँ", मुझे जरूरी काम के तहत मिलना है।"
घर का नाम सुनते ही उसने अपने पीछे आने का इशारा किया. और वह चुपचाप उसके पीछे चलने लगा . मेन दरवाजे पर पहुंचते ही उसने कालबेल के पुश बटन को दबाया. दरवाजा किसी बूढ़ी औरत ने खोला था. बूढ़ी औरत को देखते ही उस व्यक्ती ने उसकी तरफ इशारा करते हुए कहा,"मांजी ! ये सज्जन बहूजी के घर से आए हैं और उनसे मिलना चाहते हैं."
बूढ़ी औरत ने हाथ के इशारे से अन्दर जाकर बैठने को कहा तथा जोर से आवाज दी ,"बहू !आपसे कोई मिलने आए हैं."
"अभी आती हूँ" की आवाज से वह फिर बुरी तरह चौंक गया। आवाज जानी पहचानी सी लगी। कहीं? ये निशा तो नहीं? लेकिन यह कैसे हो सकता है दो नामों से जुडी युवती कहीं एक तो नहीं है. अगर यह निशा है तो फिर मालविका कौन?
लेकिन निशा ऐसा कार्य क्यों करेगी. उसे किस चीज की कमी है. ये निशा नहीं हो सकती है. जरुर उसे भी गलतफहमी हो गयी है.
"सर, यह तो मालविका का ही फोटो है". जब तक वह संभल पाटा. एक आवाज उसके कानों से दुबारा टकरा ईको करने लगती है.
"कहिये !" के साथ ही एक युवती दरवाजे पर खड़ी, शालीन मुस्कराहट के साथ, उसका स्वागत कर रही थी.
उस युवती को देखते ही वह , अब पूरी तरह से धुंआ-धुआं होने लग गया था. सिर्फ इतना ही कह सका,"आप!"
"मेरा नाम मालविका है." कुछ सकपकाते हुए उसने कहा. "लेकिन"?
उत्तर देने की बजाए वह हवलदार रामसिंह को बड़ी पैनी निगाह से घूरने लग गयी थी. उसके चेहरे पर हवाईयां उडती हुई दिखाई दे रही थी. वह जब तक हवलदार रामसिंह को चुप रहने का ईशारा करता हुआ मालविका उर्फ निशा नाम की उस युवती ने एक मिनट कह - अन्दर चली गयी. तभी उस बूढी औरत ने कमरे में प्रवेश किया. अन्दर आते ही कहने लगी,"अरे ! बहू नहीं आई अभी तक ." और उसके साथ ही बहू को आवाज दी.
"मैं चाय बना रही हूँ मेहमानों के लिए। अन्दर से घुमड़ती हुई मालविका की आवाज आती है.
अब इस बात का कतई संदेह नहीं रह गया था कि वह निशा ही है. लेकिन ... कई घुमावदार सवाल मस्तिष्क के दालानों में से गुजरते हुए चीत्कार कर उठते हैं.
तभी एक भयानक चीख पूरी कोठी में व्याप्त हो जाती है. और सब तेजी के साथ रसोई घर की तरह दौड़ पड़ते हैं. जहां मालविका उर्फ निशा लम्बी हिचकी के साथ अंतिम सांस तोड़ देती है. उसकी आँखों के सामने धुंए का बहुत बड़ा गुबार पूरी रसोई में तीखी गंध के साथ फैल कर उसके सारे सवालों को अनुत्तरित छोड़ जाता है.

लगा, जिस निशा को वह बरसों से जानता है वह तो कब की मर चुकी है. यह निशा नहीं हो सकती हाँ, मालविका जरुर हो सकती है. कभी लगता, कहीं एक कफन में दो मुर्दे तो नहीं फूँक दिए गए हैं.

यह सब सोच - सोच कर वह, अन्दर तक घृणा, क्रोध तथा पश्चाताप की भावना से भर उठता है. हवा एक बार फिर तेज हो उठती है जो लगातार कटखनी कुतिया की तरह आज भी उसका पीछा कर रही है. जिसके स्पर्श मात्र से कभी वह रोमांचित हो जाया करता था . यही वो क्षण होते हैं जहां यादें स्मृति की तलहटियों में पदचाप करती हुई जिन्दगी को अबूझ सिरों को सायास ही अंधेरी घाटियों की ओर धकेल कर आदमी को तमाम जागृत अहसासों के मध्य निपट अकेला छोड़ जाती है. और वह.... लगातार उन्हीं रहस्यमई घाटियों में उलझता हुआ खामोशियों के फैले घेरों में और खामोश होता चला जाता है, शायद .....

*********

6 comments:

Anonymous said...

kaafi badhiyaa


रश्मि प्रभा...

PRAN SHARMA said...

KAHANI ROMAANCHIT KAR JAATEE HAI.
BHASHA ,SHAILEE AUR SHILP KAMAAL
HAI ! AAPKEE LEKHNEE KO DAAD DETAA
HOON.

सुरेश यादव said...

एक सधी हुई कहानी के लिए ,आंद्रे जी को बधाई

रूपसिंह चन्देल said...

भाई कहां गायब हो जाते हो. लंबे समय तक तुम्हारी कहानी नहीं दिखती और न ही कविता. बहुत अर्से बाद कहानी पढ़ी और मन मुग्ध हो गया. बहुत सधे भाव से सुन्दर भाषा-शैली में लिखी गयी कहानी के लिए बधाई.

जरा सावधान रहना--- अमेरिका का एक साइबर दैत्य हिन्दुस्तान में घुस आया . उसने सुभाष नीरव के पांच ब्लॉग्स चाट डाले. चाट डाले माने delete कर डाले--- वर्षों की मेहनत पर पानी डाल दिया. इस खुन्दकी शैतान से सावधान रहना और अपने ब्लॉग को भी सुरक्षित रखने के उपाय कर लेना.

चन्देल

सुभाष नीरव said...

सुन्दर कहानी । बांधती है पाठक को और अपने संग संग ले चलने की ताकत रखती है। बधाई !

pakheru said...

प्रिय भाई अशोक आंद्रे,
मानवीय संवेदना और विशुद्ध भावुकता के बीच एक समर्थ विभाजक रेखा स्थापित कहानी तुमने दी है जिसे निर्विवाद रचनात्मक कहा जा सकता है. हालांकि अगर कुछ और विस्तार पाती तो शायद और मुखर होती. फिर भी कहानी ने अपना देय चुकाया है. बधाई
अशोक गुप्ता
मोबाईल 09871187875