एकांत
शहर से निकल कर, वह सुनसान घने जंगल की तरफ चल पड़ा . किसी डरावने परिवेश में लिपटी हुई जंगल की खामोशी उसे आमंत्रित कर रही थी. जंगल, जहां छोटे-बड़े पेड़ों की विशाल फौज और उनके नीचे किसी अनबूझ पहेली की तरह बेतरतीबी से बिछी हुई हरी-भरी घास . उनके पैर गतिवान थे किसी अजनबी अज्ञात की ओर .
अचानक अट्टहास का क्रूर स्वर .
पैर ठिठक गए .जीवन के सभी प्रश्न एक साथ विस्मय से चीख उठे , " कौन है"?
फिर अट्टहास.
घबराहट ने थोड़ी हिम्मत बटोरी - " कौन हंस रहा है", इस एकांत में ? सामने क्यों नहीं आता .
"मैं" मैं वही हूँ जिसकी तलाश में तुम अज्ञात में पलायन कर रहे हो ".
" क्या मतलब ?"
" मैं हूँ एकांत" .
" लेकिन तुम इतने क्रूर, इतने डरावने क्यों लग रहे हो"?
" अंत हमेशा डरावना ही लगता है. तुम एक अंत की ओर ही तो बढ रहे हो. जीवन के प्रश्नों से भाग कर , एकांत का उत्तर खोजने वाला राही एक डरावने अंत से अधिक कुछ नहीं पा सकता.
" नहीं ....नहीं, मैं अंत नहीं चाहता .....मैं अंत नहीं चाहता ....मैं जीवन चाहता हूँ.....
और वह उल्टे पैरों जीवन के प्रश्नों की ओर लौट पड़ा .
....................
A REVERIE - by ashok andrey
Great silence of trembling darkness at evening
Melts in the chores, scattered in my surrounding.
So-called "extract" of my trembling dreams
Remains untouched to the shadows of eternal thoughts,and
Chases me in the emotions of frozen past.
shapeless echoes over great eclat.
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Friday, 25 June 2010
Sunday, 20 June 2010
अशोक आंद्रे
समय, बहुत नचाया है तुमने
बहुत नचाया है समय, तुमने ।
हरे पत्तों से उठती रेशमी लहरों में,
तटों के आह्वान पर
समुद्र में उठे सफेद फेनिलों में,
पक्षियों के फैले परों तले
दोहर ओढ़े नाचा हूँ मेघों की लय पर,
हाँ, कितना नचाया है तुमने ।
कालभैरव का मुख कितना गहरा होता है,
ब्रह्म का मौन कितना गहन होता है,
विशवास डोलता है अपनी ही तरंगों पर
रात्री विस्तार पैदा करती है
दिन सिकोड़ देता है सब कुछ
समय और समय के मध्य,
कितना बिखराया है सर्वस्व,
ओ समय, कितना नचाया है तुमने ।
प्रार्थना के स्वर कहीं दूर झंकृत हो रहे हैं ,
नदी का जल कहीं डूब पैदा करता है.
भंवरें घेर लेती हैं अस्तित्व का सार
किसको भजूँ समाधि के पारावार में
सब कुछ उलट जाता है विस्तार में
क्योंकि , परछाइयों से ही तो प्यार किया है आज तक
इसीलिए तो नचाते रहे हो समय
मुझे मेरी ही धुरी पर लगातार ।
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बहुत नचाया है समय, तुमने ।
हरे पत्तों से उठती रेशमी लहरों में,
तटों के आह्वान पर
समुद्र में उठे सफेद फेनिलों में,
पक्षियों के फैले परों तले
दोहर ओढ़े नाचा हूँ मेघों की लय पर,
हाँ, कितना नचाया है तुमने ।
कालभैरव का मुख कितना गहरा होता है,
ब्रह्म का मौन कितना गहन होता है,
विशवास डोलता है अपनी ही तरंगों पर
रात्री विस्तार पैदा करती है
दिन सिकोड़ देता है सब कुछ
समय और समय के मध्य,
कितना बिखराया है सर्वस्व,
ओ समय, कितना नचाया है तुमने ।
प्रार्थना के स्वर कहीं दूर झंकृत हो रहे हैं ,
नदी का जल कहीं डूब पैदा करता है.
भंवरें घेर लेती हैं अस्तित्व का सार
किसको भजूँ समाधि के पारावार में
सब कुछ उलट जाता है विस्तार में
क्योंकि , परछाइयों से ही तो प्यार किया है आज तक
इसीलिए तो नचाते रहे हो समय
मुझे मेरी ही धुरी पर लगातार ।
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