घर की तलाश
मुद्दतों के बाद लौटा था वह
अपने घर की ओर,
उस समय के इतिहासिक हो गए घर के
चिन्हों के खंडहरात
शुन्य की ओर ताकते दिखे प्रतीक्षारत .
उस काल की तमाम स्मृतियाँ
घुमडती हुई दिखाई दीं ,
हर ईंट पर झूलता हुआ घर
भायं-भायं करता दीखा,
दीखा पेड़ , जिसके नीचे माँ इन्तजार करती थी
बैठ कर
शाम ढले पूरे परिवार का .
उसी घर के दायें कोने में पड़ी सांप की केंचुली
चमगादड़ों द्वारा छोडी गयी दुर्गन्ध
स्वागत का दस्तरखान लगाए मिलीं ,
जबकि दुसरे कोने में
मकड़ी के जालों में उलझी हुई
स्मृतियों के साथ
निष्प्राण आकृतियाँ झूल रही थीं
घर के आलों में भी काफी हवा भर गयी थी
जिसे मेरी सांसें उनसे पहचान बनाने की
कोशिश कर रही थीं,
हाँ, घर की टूटी दीवार पर लटकी छड़ी
बहुत कुछ आश्वस्त कर रही थी
टूटे दरवाजों के पीछे
जहां कुलांचें भरने के प्रयास में जिन्दगी
उल्टी- पुलटी हो रही थी,
उधर आकाश चट कर रहा था-
उन सारी स्थितियों को
जिन्हें इस घर की चहारदीवारी में सहेज कर
रख गया था
इड़ा तो मेरे साथ गयी थी
लेकिन उस श्रद्धा का कहीं कोई निशान दिखाई
नहीं दे रहा था
जिसे छोड़ गया था घर के दरवाज़े को बंद
करते हुए,
अब हताश, घर के मध्य
ठूंठ पर बैठा हुआ वह
निर्माण के सारे तथ्यों को ढूंढ रहा था,
जिसका सिरा बाती बना इड़ा के हाथ पर
जलते दीये में ही दिख रहा था,
बीता हुआ समय कल का अंतर बन कर
खेत में किसी मचान सा दिख रहा था
जिस पर बैठ कर
सुबह का इन्तजार कर रहा था वह
ताकि घर को फिर अच्छी तरह टटोलकर
सहेजा जा सके .
२
सपने
सपने हैं कि पीछा नहीं छोड़ते
हर रोज अजीबोगरीब सपनों का
सहारा लेकर
अनगिनत सीढ़ियों को घुटनों के बल
विजीत करने की कोशिश करता है वह,
यह व्यक्ति की फितरत हो सकती है
जो,उसे आकाश में भी सीढ़ियों का
दर्शन करा देती है.
सीढ़ियों पर खड़ा व्यक्ति
अपने से नीचे खड़े व्यक्ति को
उसके शास्त्र से जूझने को कहता है.
एक सीढ़ी, दो सीढ़ी पहाड़ तो नहीं
बन पाती है.
हाँ उसके व्याख्यायित आख्यानों का
विस्तार जरूर होती है.
उसी विस्तार को छूने के लिए
वह भी सपनों को विस्तार देता है
और घुटनों में ताकत देता हुआ
अपने अन्दर ही
छू लेता है उन सपनों को.
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Wednesday, 11 August 2010
Friday, 25 June 2010
अशोक आंद्रे
एकांत
शहर से निकल कर, वह सुनसान घने जंगल की तरफ चल पड़ा . किसी डरावने परिवेश में लिपटी हुई जंगल की खामोशी उसे आमंत्रित कर रही थी. जंगल, जहां छोटे-बड़े पेड़ों की विशाल फौज और उनके नीचे किसी अनबूझ पहेली की तरह बेतरतीबी से बिछी हुई हरी-भरी घास . उनके पैर गतिवान थे किसी अजनबी अज्ञात की ओर .
अचानक अट्टहास का क्रूर स्वर .
पैर ठिठक गए .जीवन के सभी प्रश्न एक साथ विस्मय से चीख उठे , " कौन है"?
फिर अट्टहास.
घबराहट ने थोड़ी हिम्मत बटोरी - " कौन हंस रहा है", इस एकांत में ? सामने क्यों नहीं आता .
"मैं" मैं वही हूँ जिसकी तलाश में तुम अज्ञात में पलायन कर रहे हो ".
" क्या मतलब ?"
" मैं हूँ एकांत" .
" लेकिन तुम इतने क्रूर, इतने डरावने क्यों लग रहे हो"?
" अंत हमेशा डरावना ही लगता है. तुम एक अंत की ओर ही तो बढ रहे हो. जीवन के प्रश्नों से भाग कर , एकांत का उत्तर खोजने वाला राही एक डरावने अंत से अधिक कुछ नहीं पा सकता.
" नहीं ....नहीं, मैं अंत नहीं चाहता .....मैं अंत नहीं चाहता ....मैं जीवन चाहता हूँ.....
और वह उल्टे पैरों जीवन के प्रश्नों की ओर लौट पड़ा .
....................
A REVERIE - by ashok andrey
Great silence of trembling darkness at evening
Melts in the chores, scattered in my surrounding.
So-called "extract" of my trembling dreams
Remains untouched to the shadows of eternal thoughts,and
Chases me in the emotions of frozen past.
shapeless echoes over great eclat.
******
शहर से निकल कर, वह सुनसान घने जंगल की तरफ चल पड़ा . किसी डरावने परिवेश में लिपटी हुई जंगल की खामोशी उसे आमंत्रित कर रही थी. जंगल, जहां छोटे-बड़े पेड़ों की विशाल फौज और उनके नीचे किसी अनबूझ पहेली की तरह बेतरतीबी से बिछी हुई हरी-भरी घास . उनके पैर गतिवान थे किसी अजनबी अज्ञात की ओर .
अचानक अट्टहास का क्रूर स्वर .
पैर ठिठक गए .जीवन के सभी प्रश्न एक साथ विस्मय से चीख उठे , " कौन है"?
फिर अट्टहास.
घबराहट ने थोड़ी हिम्मत बटोरी - " कौन हंस रहा है", इस एकांत में ? सामने क्यों नहीं आता .
"मैं" मैं वही हूँ जिसकी तलाश में तुम अज्ञात में पलायन कर रहे हो ".
" क्या मतलब ?"
" मैं हूँ एकांत" .
" लेकिन तुम इतने क्रूर, इतने डरावने क्यों लग रहे हो"?
" अंत हमेशा डरावना ही लगता है. तुम एक अंत की ओर ही तो बढ रहे हो. जीवन के प्रश्नों से भाग कर , एकांत का उत्तर खोजने वाला राही एक डरावने अंत से अधिक कुछ नहीं पा सकता.
" नहीं ....नहीं, मैं अंत नहीं चाहता .....मैं अंत नहीं चाहता ....मैं जीवन चाहता हूँ.....
और वह उल्टे पैरों जीवन के प्रश्नों की ओर लौट पड़ा .
....................
A REVERIE - by ashok andrey
Great silence of trembling darkness at evening
Melts in the chores, scattered in my surrounding.
So-called "extract" of my trembling dreams
Remains untouched to the shadows of eternal thoughts,and
Chases me in the emotions of frozen past.
shapeless echoes over great eclat.
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Sunday, 20 June 2010
अशोक आंद्रे
समय, बहुत नचाया है तुमने
बहुत नचाया है समय, तुमने ।
हरे पत्तों से उठती रेशमी लहरों में,
तटों के आह्वान पर
समुद्र में उठे सफेद फेनिलों में,
पक्षियों के फैले परों तले
दोहर ओढ़े नाचा हूँ मेघों की लय पर,
हाँ, कितना नचाया है तुमने ।
कालभैरव का मुख कितना गहरा होता है,
ब्रह्म का मौन कितना गहन होता है,
विशवास डोलता है अपनी ही तरंगों पर
रात्री विस्तार पैदा करती है
दिन सिकोड़ देता है सब कुछ
समय और समय के मध्य,
कितना बिखराया है सर्वस्व,
ओ समय, कितना नचाया है तुमने ।
प्रार्थना के स्वर कहीं दूर झंकृत हो रहे हैं ,
नदी का जल कहीं डूब पैदा करता है.
भंवरें घेर लेती हैं अस्तित्व का सार
किसको भजूँ समाधि के पारावार में
सब कुछ उलट जाता है विस्तार में
क्योंकि , परछाइयों से ही तो प्यार किया है आज तक
इसीलिए तो नचाते रहे हो समय
मुझे मेरी ही धुरी पर लगातार ।
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बहुत नचाया है समय, तुमने ।
हरे पत्तों से उठती रेशमी लहरों में,
तटों के आह्वान पर
समुद्र में उठे सफेद फेनिलों में,
पक्षियों के फैले परों तले
दोहर ओढ़े नाचा हूँ मेघों की लय पर,
हाँ, कितना नचाया है तुमने ।
कालभैरव का मुख कितना गहरा होता है,
ब्रह्म का मौन कितना गहन होता है,
विशवास डोलता है अपनी ही तरंगों पर
रात्री विस्तार पैदा करती है
दिन सिकोड़ देता है सब कुछ
समय और समय के मध्य,
कितना बिखराया है सर्वस्व,
ओ समय, कितना नचाया है तुमने ।
प्रार्थना के स्वर कहीं दूर झंकृत हो रहे हैं ,
नदी का जल कहीं डूब पैदा करता है.
भंवरें घेर लेती हैं अस्तित्व का सार
किसको भजूँ समाधि के पारावार में
सब कुछ उलट जाता है विस्तार में
क्योंकि , परछाइयों से ही तो प्यार किया है आज तक
इसीलिए तो नचाते रहे हो समय
मुझे मेरी ही धुरी पर लगातार ।
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